Monday, September 8, 2008

विधवा का मंगलसूत्र

बीते आठ सालों से लगातार सफऱ कर रही हूं। कुछ अनुभवों को बांटना चाहूंगी...जो मुझे हुए... इनमें से कुछ अपने आसपास की या फिर अनजान राहगीरों के हैं... कुछ महिलाएं, लड़कियां मुझे बस, ट्रेन, रेलवे स्टेशन या फुटपाथ पर मिलीं... आधी रात के समय बस स्टैंड पर बीड़ी सुलगाती या फिर रिपोर्टिंग के दौरान डिस्कोथेक में थिरकती हुईं। कुछ की बातें दिल दहला गईं तो कुछ दिल बहला गईं। दिलचस्प..यादगार..रूला देने वाली और कुछ जोश दिला देने वाली...।


कुछ महीने पहले मलेशिया घूमने गई थी। अलसुबह हम लोग कुआलालंपुर हवाई अड्डे पहुंच गए। एयरपोर्ट पर फ्रैश होने के बाद हमें सीधा जैंटिंग के लिए रवाना होना था। दो दिन का स्टे था वहां। वहां मालूम हुआ कि शुभांगी मेरी रूममेट है। अधेड़ उम्र की महिला,जिसका फैशन उसे नवधनाढ्य वाली महिलाओं जैसा फूहड़ लुक दे रहा था। वह पढ़ी-लिखी नहीं थी। मन में सोचा पता नहीं इससे पटेगी या नहीं...लेकिन कर कुछ नहीं सकती थी। होटल पहुंचने पर हमने कमरे में सामान पटका और धुंध के धुंए में सिमटे जैंटिंग को घूमने निकल गए।

दोनों एक-दूसरे के साथ ही रहे। अपनी इच्छा से कम बल्कि पहाड़ों में बसे जैंटिंग की तिलस्मी और चकाचौंध भरी दुनिया में खो जाने के डर से ज्यादा। बीच-बीच में कुछ बात भी हो जाती। वह हर दुकान पर खड़ी हो जाती... लेकिन मेरा मन था कि मैं बादलों की गोद में बैठे जैंटिंग की कड़ाके की ठंड का मजा लेते हुए कॉफी पिऊं। लेकिन गाइड जोजो ने कहा था कि सब लोग एकसाथ ही रहें। हमने कुछ ड्राइव्स ली..एक हॉरर शो देखा..ठंड काफी हो चुकी थी। शुभांगी ने पूछा ऐ कसीनो चलती क्या... सुना था कि जैंटिंग आकर यहां का कसीनो नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा। मंजूर...हम दोनों ने टिकट खरीदा और पहुंच गए कसीनो की जुआरियों की दुनिया में। मैं तो अभी वहां की दुनिया में पलक भी न झपक पाई थी कि देखा शुभांगी बाजी खेलने बैठ गई थी...और हार भी गई। फिर कहने लगी मेरे को आता थोड़ा ऐ..न में जीतने के वास्ते नहीं खेली...इसलिए खेली कि याद रहेगा न कि मलेशिया जाकर कसीनो गई थी। रात को सभी लोग बफे में इकट्ठा हुए। शुभांगी ने सभी खाने की चीजों का जायजा लिया...अपनी प्लेट भरी और फोटो खिंचवाई। वह हर जगह फोटो जरुर खिंचवाती थी।

तीसरे दिन हम लोग कुआलालंपुर लौट आए। शाम को ही हमें सनवे लेगून वाटर पार्क जाना था। शुभांगी पानी में नहीं उतरी। काफी देर पानी में मस्ती करने के बाद मुझे चाय और धूप की जरूरत थी। हम शोर-शराबे से दूर कॉफी पीने लगे धूप में। मैंने पूछा शुभांगी तुम्हारा मंगलसूत्र बहुत सुंदर है। तुम्हारे पति ने दिया? क्या करते हैं वो?...वह कहने लगी ऐ मै तेरे को बताना तो नहीं था पन तू मेरी दोस्त है, तो तेरे से झूठ नी बोलनेका... मैं विधवा हूं..। इसके बाद वह फूट-फूट कर रोने लगी। बच्चों की तरह। उसने बताया कि पति की मौत के बाद सभी ने उससे नाता तोड़ लिया। पढ़ी-लिखी नही थी...इसलिए ब्यूटीपार्लर का काम सीखा और संघर्ष कर बच्चों को पाला।

अब बेटा कमाने लगा है। उसने शुभांगी को पूछे बिना उसकी मलेशिया की बुकिंग करवा दी थी। वह बताती है मुझे मालूम लगा तो मैंने उसे डांट लगाई कि लोग क्या कहेंगे...विधवा को मजे सूझ रहे हैं...जवानी फूटी है...सो मैं नहीं जाउंगी। लेकिन शाम को बेटा एक मंगलसूत्र खरीद लाया और कहने लगा मम्मी तुझे जाना तो जरूर है मेरी खातिर। लोगों की जुबान बंद करने के लिए मैं यह मंगलसूत्र ले आया हूं...वहां जो पसंद हो वो खरीदना और मुझे हर जगह का फोटो जरूर दिखाना...रोज फोन करना...। शुभांगी अब मुझे वो अधेड़ उम्र की महिला नहीं एक बच्ची लग रही थी। जो कभी बड़ी नहीं हो पाई..।

22 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

मार्मिक विवरण, और एक नए चरित्र का उद्घाटन।
अपने टिप्पणी फार्म से वर्ड वेरिफिकेशन तो हटाएँ।

sanjay patel said...

कम नज़र आते हैं ऐसे बेटे जो माँ को ख़ुशियाँ दे सकें.ज़िन्दगी का सफ़र सुकून भरा और सुदीर्घ हो जाता है ऐसी अभिव्यक्तियों से.
साधुवाद आपको मनीषाजी.

अबरार अहमद said...

आपके बारे में सुना तो बहुत था पर पहली बार आपको पढकर इस बात की तसल्ली हो गई कि आप उस चीज की हकदार हैं जहां आप हैं। बहुत अच्छा लिखा है आपने। बधाई।
एक रिक्वेस्ट है आपसे कि कमेंट बाक्स से वर्ड वेरिफाई को हटा दें। इससे दिक्कत महसूस होती है।

मनीषा भल्ला said...

वर्ड वेरिफाई हटा दिया है.........

Unknown said...

एक उम्र गुजर जाने पर भी हमेशा कहीं बची रह जाती हैं बच्चियाँ...

Pankaj Sharma said...

Very good . Keep up the efforts.

Best wishes to you always.

अजित वडनेरकर said...

बहुत खूब मनीषा...
संवेदनशील कहानी ...गहरी नज़र ...

मोहन वशिष्‍ठ said...

वाह मनीषा जी सबसे पहले तो शुरूआत और वो भी एक धांसू शुरूआत के लिए बधाई तो आखिर आ ही गए आज आप भी इस ब्‍लाग की दुनिया में आपका स्‍वागत है और लिखते रहो और छा जाओ मुबारक हो

Geet Chaturvedi said...

स्‍वागत है जी.

MANVINDER BHIMBER said...

मनीषा तुम्हारा ब्लॉग और उसकी पोस्ट , दोनों ही पसंद आए . बेटे की माँ के प्रति भावना ...बहुत सुंदर.
समाज की तस्वीर भी दिखा दी....
ब्लॉग का नाम ....
अमृता जी की नज्म की पंक्तियाँ......
अमृता जी ने बहुत मायूस हो कर बटवारे का द्रश्य एक कागज़ पर लिख दिया जो आगे चल कर पंजाब बोर्ड के पाठ्य क्रम में शामिल किया गया और फ़िर तुम्हारे ब्लॉग का शीर्षक ......
बधाई अच्छी पोस्ट पद्वाने के लिए

Dr Parveen Chopra said...

कुछ दिनों बाद नेट पर बैठा तो आप के ब्लाग का शीर्षक आप की इस पोस्ट की तरफ खींच लाया। शीर्षक देख कर शब्दों की उस महान जादूगर, पूज्यनीय अमृता प्रीतम जी की याद आ गई...हम लोग आठवीं जमात में यह पाठ रटते थे। और आप की पोस्ट पढ़ कर राजकपूर की फिल्म प्रेमरोग की बात याद ताज़ा हो उठी।
आप ने बहुत अच्छा लिखा है।
http://drparveenchopra.blogspot.com

Anonymous said...

What a wonderful son and a great relationship story.
Look forward to reading more of them.
cheers

बाल भवन जबलपुर said...

लोगों की जुबान बंद करने के लिए मैं यह मंगलसूत्र ले आया हूं...वहां जो पसंद हो वो खरीदना और मुझे हर जगह का फोटो जरूर दिखाना...रोज फोन करना...। .................................... जो कभी बड़ी नहीं हो पाई..।
बस यहीं नारी मज़बूर है मुझे करुण कथानक ने हिला दिया आभारी हूँ चिंतन को दिशा देने के लिए

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

manishaji
bahut achcha chitra khincha hai.

Pawan said...

काश! मैं भी साहस बटोर पाता अपनी मां को मंगलसूत्र देने का। गलीज़ परंपराएं हैं तमाम..इन्हें तोड़ना ही होगा। मनीषा जी..बेहतरीन पोस्ट है।

ravindra vyas said...

स्वागत और शुभकमनाएं।
कहानियां चारों अोर बिखरी पड़ी हैं, बस हमें सूंघकर उन्हें अंदर कहीं महकने के लिए आंगन भर देना होता है। वे अपने आप भी खुलती जाती हैं। यह कहानी भी शायद ऐसी ही है।

kalism said...

manisha,
darasl patar ke saath judne ke lie pathak ko ek samwedna ki jarurat hoti hai,tum shyad lamba lekh na ban jae islie jaldi me thi. magar jab tak pathak patar se judta nahi, tumhare vichar us tak pahunch to jaeinge , mgar uski samwedna ko nahi chooh paeinge, is lie patar ko khulne do , ghoomne do, azaad rehne do, tabhi ham jur sakeinge.
tum soch rahi hogi kya buzurgon jaisi batein shuru kar di,ab bhai umar ka takaza hai.phir bhi jis sadgi ke saath tum aye ho bahut khoob.lage raho....... kali dr

vijaymaudgill said...

सबसे पहले बधाई स्वीकारें इतने हिला देने वाले लेख के लिए।
ठंडे मौसम की बात करते-करते आख़िरी लाइनों में इतनी गर्मी भर दी कि पढ़ने के बाद ख़ून तक सूख गया। लिखते समय भी आंखें तप रही हैं।
सच में यार हिल गया। और आपकी लेखनी में जो सादगी है उसकी दाद देता हूं। लेकिन उस औरत की छोटी-2 बातों का थोड़ा सा बखान और करतीं जो पाठक की आंखें नम कर देता, तो सोने पे सुहागा होता।
शुभकामनाएं, दुआ है कि आप कभी पीछे मुड़कर न देखें।

रंजू भाटिया said...

बहुत सुंदर ..दिल को छू गया आपका लेखन

Unknown said...

मनीषा,
आपका ब्लॉग अच्छा है । सोचने वाली बात यह है कि रंडवा (विधुर)तो रंडवा एक शादीशुदा मर्द भी घर से बाहर पूरी दुनिया में कुंवारा बना फिरता है और एक औरत को मंगलसूत्र की शरण लेनी पड़ती है । इस दकियानूसी बंधनो से निजात पाने के लिए महिलाओं को ही आगे आना होगा ।
jeeveshprabhakar.blogspot.com

note pad said...

आपका ब्लॉग पसन्द आया और पोस्ट भी। विचारशील है और सबसे ज़्यादा पसन्द आया आपका प्रोफाइल।
आपका स्वागत है ब्लॉग जगत में।
चोखेर बाली का जो मूल तत्व है उससे मिलता हुआ आपका स्वभाव है sandoftheeye.blogspot.com पर आपको भी आएँ तो यह अच्छा होगा।

सुजाता

सुप्रतिम बनर्जी said...

मनीषा,
बहुत बढ़िया लिखा है। पढ़ कर रौंगटे खड़े हो गए। लगा शुभांगी सामने खड़ी हो कर फूट-फूट कर रो रही है।